भारत में उच्च शिक्षा का निजीकरण कितना सही, कितना गलत?



भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तीन विश्वविद्यालयों की संख्या थी लेकिन अब इनकी संख्या बढ़कर 250 से भी ज्यादा हो गई है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में शिक्षा के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है। देश के कई राज्य क्षमता के अनुरूप प्रदर्शन कर रहे हैं। कई राज्यों में शिक्षा का प्रतिशत 99.99 फीसदी तक है। केरल राज्य देश का ऐसा ही राज्य है जहां की हर एक जनता शिक्षित है।

देश स्थित विश्वविद्यालयों में 18 भाषाओं में पढ़ाई करवाई जा रही है। इन संस्थानों में प्रतिवर्ष 75 लाख से ज्यादा छात्र और छात्राएं प्रवेश पाते हैं लेकिन फिर भी अभी देश के कई हिस्सों तक उच्च शिक्षा नहीं पहुंच पाई है। देश के दूर-दराज के क्षेत्रों में शिक्षा का रास्ता बड़ा ही कठिन है। कई गांव ऐसे भी हैं जहां पर मूलभूत सुविधाओं का भी काफी अभाव है। हालांकि सरकार इस दिशा में प्रयास कर रही है लेकिन प्रयास की रफ्तार काफी धीमा है।


वर्तमान समय में देश में स्थित विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के स्तर बढ़ाने का विचार हो रहा है। कई विश्वविद्यालय ऐसे हैं जहां पर अभी भी पढ़ाई पुराने सिलेवस से ही करवाई जा रही है। इन संस्थानों में कोर्स को अपडेट तक नहीं किया गया है। यदि सरकार इन विश्वविद्यालयों का कायाकल्प करना भी चाहती है तो यहां पर काफी धन की आवश्यकता पड़ेगी। ऐसे में सरकार के पास शिक्षा के निजीकरण के अलावा अन्य विकल्प नहीं बचता है। लेकिन निजीकरण ही सिर्फ एक मात्र रास्ता नहीं होना चाहिए। इससे स्थितियों में विकृति पैदा होगी।
भारत में उच्च शिक्षा की वर्तमान में जो हालत है वो काफी चिंताजनक है। नए संस्थानों में कुछ व्यवस्था तो ठीक है लेकिन पुराने संस्थान की स्थिति डमाडोल है। बात करते हैं देश के पूर्वी राज्यों की तो बिहार, पूर्वी उत्तरप्रदेश में स्थित उच्च शिक्षण संस्थानों में छात्रों को सभी आवश्यक सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं। बिहार की राजधानी पटना में दो विश्वविद्यालयों के कॉलेज हैं। लेकिन यहां पर काफी कम संख्या में अच्छे उच्छ शिक्षण संस्थान हैं।


पटना शहर में कहने को तो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक पटना विश्वविद्यालय है लेकिन विश्वविद्यालय अब राजनीतिक अखाड़े के अलावा कुछ रहा नहीं। यहां पर पढ़ाई से ज्यादा राजनीति होती है। यहां पर मौजूद कुछ सुविधाओं को यहां के छात्र और उपद्रवी लोग ही नष्ट कर रहे हैं। जिससे विश्वविद्यालय की साख लगातार गिर रही है। पटना विश्वविद्यालय का बीएन कॉलेज कभी देश के गिने-चुने कॉलेजों में शामिल था लेकिन अब उन्हें कोई पूछता नहीं। कॉलेज में राजनीतिक लोगों की भरमार है।

इसी तरह से पूर्वी उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है। अभी हाल ही में काशी का प्रसिद्ध विश्वविद्यालय बीएचयू भी राजनीतिक आंच से झुलसने लगा है। यह विश्वविद्यालय भी अपनी साख धीरे-धीरे गवा रहा है। हाल के दिनों में विश्वविद्यालय में जो देखने को मिला उसे शिक्षा और विश्वविद्यालय के दृष्टि से कतई सही नहीं कहा जा सकता है। छात्र पढ़ाई को राजनीति से जोड़कर देखने लगे हैं।


विश्वविद्यालयों की खराब होती स्थिति से अन्य समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं। ऐसे संस्थानों से निकले हुए छात्रों को नौकरी खोजने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इससे देश में बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ रही है। देश में प्रतिवर्ष 3-4 लाख बेरोजगारों के नाम रोजगार पंजीकरण कार्यालयों में दर्ज हो रहे हैं। ये तो सिर्फ वो नाम हैं जो दर्ज होते हैं। कई लोग तो इस कार्यालय में अपना दर्ज ही नहीं कराते हैं। रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं होने की वजह से ज्यादातर युवा दिशाहीन होकर गैर-कानूनी कार्यों की ओर मुड़ रहे हैं।

वर्तमान समय में सरकार द्वारा जो प्रयास किये जा रहे हैं उससे यह प्रतीत हो रहा है कि सरकार सिर्फ देश की जनसंख्या को शिक्षित करना चा रही है। सरकार अपना ज्यादा ध्यान देश के प्राथमिक शिक्षा पर दे रही है। उच्च शिक्षा के लिए देश में उच्च शिक्षण संस्थाओं की कमी हमेशा से रही है। सरकार ने भी कभी इन संस्थानों की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया। देश में शिक्षा को बढ़ाने के लिए आजादी के बाद से ही पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से कार्य किया जा रहा था लेकिन चौथी पंचवर्षीय योजना के बाद से लगातार उच्च शिक्षा के लिए बजट में कटौती की जा रही है।



राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के आते ही देश में शिक्षा के निजीकरण की आहट मिलने लगी थी। उस वक्त सरकार ने शिक्षण संस्थानों को बेहतर बनाने के लिए चंदा इकट्ठा करना और संस्थान के रोजमर्रा के प्रयोग में आने वाली वस्तुओं की पूर्ती के लिए स्थानीय लोगों की सहायता की बात इसमें कही गई। भारत सरकार ने भी 1991 में ढाँचागत समायोजन के नाम पर आर्थिक उदारीकरण को आगे बढ़ाया। तत्कालीन समय में उच्च शिक्षा के बजट में यूजीसी द्वारा कटौती की गई। यह कटौती काफी अधिक थी। यूजीसी ने उच्च शिक्षा के बजट में 35 फीसदी की कटौती की गई।

यही नहीं यूजीसी ने इस कटौती के साथ ही उच्च शिक्षण संस्थानों से कहा कि वो अपने संसाधन स्वयं जुटाने का प्रयास करें। केंद्र सरकार ने निर्देशानुसार यूजीसी ने 1992 में न्यायमूर्ती पुनीया के नेतृत्व में उच्च स्तरीय समिति का गठन किया। इस समिति की मुख्य उद्देश्य था को वो विश्वविद्यालयों के आर्थिक संकट के हल और संसाधनों के उगाही के संबंध में सरकार को रिपोर्ट पेश करें।


समिति ने 1993 में सरकार को रिपोर्ट पेश किया और रिपोर्ट में कहा- ‘कोई भी समाज जो गरीबी और गैर-बराबरी से जूझ रहा हो, वह विश्वविद्यालयों में हो रही फिजूलखर्ची के सब्सिडीकरण का समर्थन नहीं कर सकता अथवा सम्पन्न तबकों को उच्च शिक्षा पर हो रहे खर्च के भुगतान से बचे रहने की इजाजत नहीं दे सकता है। इसलिए उच्च शिक्षा पर हो रहे वास्तविक खर्च का बड़ा हिस्सा उनसे वसूलना चाहिए।‘


इस रिपोर्ट से साफ पता चलता है कि सरकार ने उसी समय से शिक्षा के निजीकरण का प्रयास शुरू कर दिया था। साथ ही आनन्द कृष्णन समिति की सिफारिशों से स्पष्ट हो गया कि अब सरकार उच्च शिक्षा का खर्च अभिभावकों पर डालने की तैयारी कर चुकी है। सरकार अब उच्च शिक्षण संस्थानों में निजी निवेश को भी बढ़ावा दे रही है। अभी के फ्रेमवर्क के मुताबिक नए विश्वविद्यालयों की स्थापना में अब सरकार ने निवेश की रूपरेखा तैयार कर दी है और इसमें 40 और 60 फीसदी के निवेश की संस्तुति की गई है।


सरकार के ताजा प्रयास कापी डरावना दिख रहा है। ऐसा होने से उच्च शिक्षा काफी महंगी हो जाएगी और यह सिर्फ उच्च वर्ग के लोगों के बच्चों के लिए ही रह जाएंगी। हालांकि रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र किया गया कि गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों के लिए ऋण प्रदान करने का भी विकल्प दिया जाए।

लेकिन यह तर्कसंगत नहीं दिखता। क्योंकि गरीब तबके के अभिभावक इतनी हिम्मत नहीं कर सकते कि वो इतनी बड़ी रकम को ऋण के तौर पर लें। कारण पढ़ाई के बाद रोजगार की गारंटी न होना लोगों को डराता है कि वो शिक्षा के लिए ऋण ले। फिर समान शिक्षा की बात बेइमानी साबित हो जाती है। ऐसे में क्या विकल्प हो सकते हैं उच्च शिक्षा में बेहतरी के और समान शिक्षा के अवसर दिलाने के? अपनी भावनाएं अवश्य शेयर करें।

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