भारतीय विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति का भविष्य


हम आए दिनों ये देख रहे हैं कि हमारे विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति किस दिशा में जा रही है। हाल के दिनों में ये देखने को मिला है कि छात्र राजनीति में अब पहले वाली बात नहीं रही। ऐसा लगता है जैसे कि छात्र राजनीति की आड़ में देश से खिलवाड़ करने लगे हैं। हाल के दिनों में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में जो हुआ उसे कतई छात्र राजनीति के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता। जिस प्रकार देश के विरुद्ध नारेबाजी की गई और राषट्रीयता के साथ जो खिलवाड़ किया गया वो कहीं से भी एक स्वस्थ छात्र राजनीति की छवि नहीं लगती। जेएनयू में हुए इस विवाद में सभी छात्र दल आमने-सामने हुए। एक-दूसरे पर दोषारोपण कर हालात के लिए जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की गई।


उस समय देश जल रहा था। बिहार के छात्र आंदोलन के सालों बाद देश में छात्र राजनीति मुख्य राजनीति के तौर पर सामने आयी। हालांकि इसका स्वरूप बिहार छात्र आंदोलन से बिलकुल ही भिन्न था।

एक तरफ बिहार से शुरू हुआ आंदोलन देश में एक नए नेतृत्व को जन्म दिया तो वहीं जेएनयू से शुरू हुई छात्र राजनीति कहीं भटकी हुई और एक निजी स्वार्थ के लिए ऐसा किया गया लगता है। देश के टुकड़े करने के लिए नारेबाजी। आतंकियों की बरसी और सेना पर अभद्र टिप्पणी इत्यादि। कहीं से भी इसे छात्र राजनीति के लिए सही नहीं कही जा सकती। 

सरकार केंद्रीय विश्वविद्यालों को आपार धन देती है। देश के युवा सरकार के इसी धन पर मौज करते हैं और देश के खिलाफ ही नारेबाजी करते हैं। विश्वविद्यालयों में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ बोलने की छूट देश के साथ खिड़वाड़ ही है। देश के खिलाफ नारेबाजी करने वालों को छात्र कहकर छोड़ देना देश के साथ खिलवाड़ करने जैसा ही है। इस प्रकार के हालात को कतई छात्र राजनीति के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता है।

हमारे विश्वविद्यालयों में इस बात की बहस होनी चाहिए कि आखिर हम लड़ना किससे चाहते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस लड़ाई की रूख ही बदल गया हो और ये मात्र कुछ तुच्छ व्यक्तियों के लिए कामना पूर्ती का मार्ग बन गया हो। जिस प्रकार का माहौल देश विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति का है उससे तो यही लगता है कि भारतीय विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति का भविष्य सुनहरा नहीं बल्कि अधेरे की गर्त में जा रही है। 

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